साँची की स्थापत्य कला : एक विश्लेषण



साँची की स्थापत्य कला : एक विश्लेषण

प्रस्तावना
         साँची विदिशा से लगभग ९ कि.मी. दक्षिण-पश्चिम में बिना और भोपाल के मध्य है। कला और शिल्पकारी के दृष्टि से भारतीय बौद्ध तीर्थों में इसका आज उतना ही महत्व है जितना तब था जब की यह बौद्ध धर्मावलंबियों का प्रमुख केंद्र था। सादियों तक यह बौद्ध स्मारकों में अपनी बुलन्दियों के लिए विश्वविख्यात था। यहा प्राप्त अभिलेखो से यह ज्ञात होता है की, इस स्थल का प्राचीन नाम काकणाय या काकणाव था। मुख्य स्तूप की वेदिका पर ४१२-१३ ईसवी तथा ४५०-५१ ईसवी के अभिलेखो में इसका नाम काकनादबोट मिलता है। सातवी शताब्दी ईसवी में अन्य अभिलेख के द्वारा बोट-श्री-पर्वत नाम मिलता है। इस प्राचीन नाम के अवशेषो के रूप में इसका कनखेद नामक गाँव के निकट आज भी स्थित है। यहा बने धार्मिक स्मारकों की नीवं सर्वप्रथम सम्राट अशोक के हाथो में पड़ी थी। जब उन्होने यहा एक स्तूप और स्तंभ का निर्माण किया था। अशोक द्वारा इस निर्माण कार्य के लिए साँची की पहाड़ी चुनने का कारण विदिशा की संभ्रांत महिला से उनका विवाह रहा होंगा। यहा से प्राप्त अभिलेखो से यह स्पष्ट होता है की इस तीर्थ स्थल की उन्नति के पीछे विदिशा के श्रेष्ठी-समुदाय का बड़ा सहयोग रहा होंगा। यह स्तूप तीन राजाओ के काल में बना हुआ है।
१) सम्राट अशोक का काल                                             
) शुंग सम्राटों का काल                                              
३) कुषाण काल

साँची को पहुचने के लिए निम्नलिखित सेवाए उपलब्ध है -
वायु सेवा:- निकटतम हवाई अड्डा दो मार्गों से क्रमश: 46 तथा 78 कि.मी. है। यहां के लिए दिल्ली, मुंबई, ग्वालियर और इंदौर से विमान सेवा उपलब्ध है।
रेल सेवाएं:- सांची मध्य रेलवे की झांसी-इटारसी खंड पर स्थित हैं लेकिन सांची से 10 कि.मी. दूर स्थित विदिशा सुविधाजनक स्टेशन है।
सड़क मार्ग:- सांची आने-जाने के लिए भोपाल, इंदौर, सागर, ग्वालियर, विदिशा और रायसेन आदि से बस - सेवा उपलब्ध है।
ठहरने के स्थान:- म.प्र. पर्यटन विकास निगम का लॉज, कैफेटेरिया, सरकारी डाक बंगला तथा बौद्ध धर्मशाला यहां है।
   









साँची स्तूप का परिचय -

               स्तूप का अर्थ होता है पूजनीय टीला यह किसी खास धर्म के लिए नहीं होते वह सभी धर्मो के भी होते है। शुरू में जो स्तूप थे वह आज के आधुनिक स्तूप जैसे नहीं है। पूरे विश्व में तीन प्रकार के स्तूप होते है,
१) शारीरिक स्तूप                                                   
२) पारिभोगिक स्तूप                                                 
 ३) उद्देशिक स्तूप

शारीरिक स्तूप:- शारीरिक स्तूप जो अर्हत और बोधिसत्व होते है और महान सम्राट होते उनकी अस्थियों पर जिस स्थापत्य का निर्माण किया जाता है उसे शारीरिक स्तूप कहते है। भगवान बुद्ध के प्राचीनतम धातु बालको माना जाता है। जो भगवान बुद्ध के सबसे पहले उपासक बने थे। वह थे उड़ीसा के दो व्यापारी तपस्सू और भल्लिक। उन्होने अपने देश में याने उड़ीसा में एक स्तूप का निर्माण किया था। यही स्तूप सबसे प्राचीन स्तूप माना जाता है।
 पारिभोगिक स्तूप :- भगवान बुद्ध और अन्य अर्हन्तो के द्वारा प्रयोग कि गयी वस्तुओं रखकर जो स्तूप बनवाये  जाते थे उस प्रकार के स्तूप को पारिभोगिक स्तूप कहा जाता है। पेशावर में भगवान बुद्ध के भिक्षा पात्र पर स्तूप बनवाया है, इसका वर्णन चीनी यात्री फहियान के अपने यात्रा विवरण में किया गया है।
उद्देशिक स्तूप:- इस तरह के स्तूप का निर्माण आधुनिक काल में होता है। पहले इस तरह के स्तूप का निर्माण नहीं किया जाता था। यह स्तूप किसी उद्देश से निर्माण किया जाता है। उसे उद्देशिक स्तूप कहते है। जैसे शांति स्तूप, विश्वशांति स्तूप। इस स्तूप में किसी अर्हंत की अस्थिया नहीं रख जाती, बल्कि उसमे मूर्तिया रखी जाती है।
      पाँचवी शताब्दी ई.सा.पूर्व में बुद्ध के महपरिनिर्वाण  के बाद स्तूपों का निर्माण किया गया । बिंबिसार के लेकर मौर्यवंश तक स्तूपों का निर्माण नहीं हुआ था। लेकिन जब सम्राट अशोक का राज्यकाल आय। तभी से स्तूपो का निर्माण होना आरंभ हुआ। सम्राट अशोक ने भगवान बुद्ध के ८४ हजार उपदेशों को ध्यान में रखकर उतनेही स्तूप बनाये। इसमे सबसे बड़ा और महत्त्वपूर्ण स्तूप सांची का स्तूप माना जाता है। उसके बाद सारनाथ का धम्मेक स्तूप है। जिसे भी बड़ा और महत्त्वपूर्ण स्तूप माना जाता है।
             यह स्तूप विदिशा जिले के सुमेरु पर्वत पर है। यह स्तूप सम्राट अशोक द्वारा बनवाया गया है। इस स्तूप का निर्माण तीसरी शताब्दी का माना जाता है। इस स्तूप को सम्राट अशोक ने ईटों से बनाया था। ईसमे जो स्तूप का मुख्य भाग है जो वेदिका है जिसमें अर्हन्तो के स्मृति चिन्ह रखे जाते है। वह भी ईटों से ही बना है। स्तूप के मुख्य तीन भाग होते है।
१) हर्मिका – जो स्तूप के ऊपर वाला भाग है।
२) मुख्य भाग – इसमे स्मृति चिन्ह रखे जाते है।
          सम्राट अशोक ने सांची के स्तूप का मुख्य भाग बनवाया था। और स्तूप के चारों ओर बाउंड्री  बनवाई थी, जो लकड़ी की थी। स्तूप में और भाग होता है जिसे वेदिका कहते है। यह वेदिका याने परिक्रमा करने की जगह है।
         यह स्तूप व सम्राट अशोक ने ईटोसे बनवाया था। लेकिन पहली शताब्दी में शुंगों ने सम्राट अशोक के स्थापत्य का विकास किया और उसपर पत्थर चढ़वाकर उसे और ऊंचा किया। यह पत्थर शुंगों ने सुमेरु पर्वत से लिये थे। सुमेरु पर्वत का प्राचीनतम नाम काकवन पर्वत था। इसके साथ ही स्तूप की बाउंड्री भी पत्थर से बनवायी गयी। यह पात्थर बलुआ पत्थर थे। इस स्तूप की ऊंचाई सम्राट अशोक ने जब इसका निर्माण किया तो सभवतः ६० से ७० फिट रही होंगी। अभी इसकी ऊंचाई १२० फिट है। इसपर विवाद है। क्योकि उसके जो शिलालेख है वह ६० से७० फिट तक ऊंचे पाये जाते है।
          शुंगों के बाद फिर कुषाण शासन आया और उन्होने इस स्तूप के सौंदर्य को देखकर प्रभावित हो गये। उन्होने इस स्तूप को चार तोरण द्वार बनवाये(यह तोरण द्वार कनिष्क काल में बनवाये गये)
        इस स्तूप का जो रेलिंग  बना है वह बलुआ पत्थर से बना है। यह पत्थर उत्तम कोटीका पत्थर माना जाता है। इस पत्थर को नागोरी पर्वत से कटवाया था। और इस पत्थर से पूरी रेलिंग(बाउंड्री) बनवायी थी। इस बाउंड्री में तीस खंभे(पिलर) है इस की ऊंचाई ११ फिट है ८.५ फिट जमीन के ऊपर और २.५ फिट जमीन के नीचे है। इस स्तूप के रेलिंग पर कूछ भी चित्रित नहीं है।   
३) वेदिका – इस स्तूप की वेदिका की ऊंचाई १५ फिट है। इस पर की जों हर्मिका है वह भी पत्थरोंकी है और उसका भी बाउंड्री करन किया गया है। यही से  सौंदर्यीकरण और कला का आविष्कार हुआ है। इस सबकी गोलाई तीन फिट है। यह कला तब से ही तत्कालीन कला का अप्रतिम  नमूना है। 
तोरण द्वार – सांची के स्तूप का जो तोरण द्वार है उसके लिए जिस पत्थर का प्रयोग किया है, वह उदयगिरि पर्वत से लाया गया था और उसी पत्थर से यह तोरण द्वार बनवाये गये है। तोरण द्वार की बनावट साधारण है। प्रत्येक तोरण द्वार में दो खंबे है प्रत्येक खंबा ३४ फिट लंबा है, और इस खंबे की चौड़ाई ७ फिट है और इसमे तीन प्रकार की शिल्पकलाए है। शीलकालाओं के नीचे पंधरा फिट उसको अलंकृत किया गया है और अलंकृतिकरण से साँची को जाना जाता है। उसपर अरहंत की मूर्तिया बनवाई गयी है। वह अर्हंत की भी पुजा की जाती है इसके अलावा यहा बुद्ध की भी पुजा की जाती है। यह स्तूप विश्व का एक मात्र स्तूप है जो साँची के नाम से जाना जाता है। इसमे बोधिसत्व की मूर्तिया बनाई गयी है। इसके अलावा जातक कथाए भी इस तोरण द्वारा पर देखने को मिलती है। (यह ग्रीक कला का आविष्कार है)
स्तूप क्रमांक एक :- इस स्तूप की ३६.५ मीटर की परिधि तथा १६-४ मीटर की ऊंचाई वाला भव्य निर्माण प्राचीन भारतीय स्थापत्य कला की अनुपम कृति हैं।
स्तूप क्रमांक दो :- इस स्तूप की श्रेष्ठता उसके पाषाण-निर्मित घेरे में है। उर्द्धगोलाकार युक्त गुंबध वाले स्तूप क्रमांक-तीन का धार्मिक महत्व है। महात्मा बुद्ध के दो प्रमुख शिष्यों सारिपुत्र तथा महामौगलायन के अवशेष यहीं मिले थे।बौद्ध विहार, अशोक स्तंभ, महापात्र, गुप्तकालीन मंदिर तथा संग्रहालय यहां के अन्य दर्शनीय स्थल है।
         सांची भारत के मध्य प्रदेश राज्य के रायसेन जिले, में स्थित एक छोटा सा गांव है। यह भोपाल से ४६ कि.मी. पूर्वोत्तर में, तथा बेसनगर और विदिशा से १० कि.मी. की दूरी पर मध्य-प्रदेश के मध्य भाग में स्थित है। यहां कई बौद्ध स्मारक हैं, जो तीसरी शताब्दी ई.पू से बारहवीं शताब्दी के बीच के काल के हैं। सांची में रायसेन जिले की एक नगर पंचायत है। यहीं एक महान स्तूप स्थित है। इस स्तूप को घेरे हुए कई तोरण भी बने हैं। यह प्रेम, शांति, विश्वास और साहस के प्रतीक हैं। सांची का महान मुख्य स्तूप, मूलतः सम्राट अशोक महान ने तीसरी शती, .पू. में बनवाया था। इसके केन्द्र में एक अर्धगोलाकार ईंट निर्मित ढांचा था, जिसमें भगवान बुद्ध के कुछ अवशेष रखे थे। इसके शिखर पर स्मारक को दिये गये ऊंचे सम्मान का प्रतीक रूपी एक छत्र था।


इतिहास 

        
इस स्तूप में एक स्थान पर दूसरी शताब्दी ई.पू. में तोड़फोड़ की गई थी। यह घटना शुंग सम्राट पुष्यमित्र शुंग के उत्थान से जोड़कर देखी जाती है। यह माना जाता है कि पुष्यमित्र ने इस स्तूप का ध्वंस किया होगा, और बाद में, उसके पुत्र अग्निमित्र ने इसे पुनर्निर्मित करवाया होगा। शुंग वंश के अंतिम वर्षों में, स्तूप के मूल रूप का लगभग दुगुना विस्तार पाषाण शिलाओं से किया गया था। इसके गुम्बद को ऊपर से चपटा करके, इसके ऊपर तीन छतरियां, एक के ऊपर दूसरी करके बनवायीं गयीं थीं। ये छतरियां एक वर्गाकार मुंडेर के भीतर बनीं थीं। अपने कई मंजिलों सहित, इसके शिखर पर धर्म का प्रतीक, विधि का चक्र लगा था। यह गुम्बद एक ऊंचे गोलाकार ढोल रूपी निर्माण के ऊपर लगा था। इसके ऊपर एक दो-मंजिला जीने से पहुंचा जा सकता था। भूमि स्तर पर बना दूसरी पाषाण परिक्रमा, एक घेरे से घिरी थी। इसके बीच प्रधान दिशाओं की ओर कई तोरण बने थे। द्वितीय और तृतीय स्तूप की इमारतें शुंग काल में निर्मित प्रतीत होतीं हैं, परन्तु वहां मिले शिलालेख अनुसार उच्च स्तर के अलंकृत तोरण शुंग काल के नहीं थे, इन्हें बाद के सातवाहन वंश द्वारा बनवाया गया था। इसके साथ ही भूमि स्तर की पाषाण परिक्रमा और महान स्तूप की पाषाण आधारशिला भी उसी काल का निर्माण हैं।.

 
स्थापना

        
सांची की स्थापना बौद्ध धर्म व उसकी शिक्षा के प्रचार-प्रसार में मौर्य काल के महान राजा अशोक का सबसे बडा योगदान रहा। बुद्ध का संदेश दुनिया तक पहुंचाने के लिए उन्होंने एक सुनियोजित योजना के तहत कार्य आरंभ किया। सर्वप्रथम उन्होंने बौद्ध धर्म को राजकीय प्रश्रय दिया। उन्होंने पुराने स्तूपों को खुदवा कर उनसे मिले अवशेषों के 84 हज़ार भाग कर अपने राज्य सहित निकटवर्ती देशों में भेजकर बडी संख्या में स्तूपों का निर्माण करवाया। इन स्तूपों को स्थायी संरचनाओं में बदला ताकि ये लंबे समय तक बने रह सकें। सम्राट अशोक ने भारत में जिन स्थानों पर बौद्ध स्मारकों का निर्माण कराया उनमें सांची भी एक था जिसे प्राचीन नाम कंकेनवा, ककान्या आदि से जाना जाता है। तब यह बौद्ध शिक्षा के प्रमुख केंद्र के रूप में विकसित हो चुका था। ह्वेन सांग के यात्रा वृत्तांत में बुद्ध के बोध गया से सांची जाने का उल्लेख नहीं मिलता है। संभव है सांची की उज्जयिनी से निकटता और पूर्व से पश्चिम व उत्तर से दक्षिण जाने वाले यात्रा मार्ग पर होना भी इसकी स्थापना की वजहों में से रहा हो।

विशेषता

        
यह स्तूप एक ऊंची पहाड़ी पर निर्मित है। इसके चारों ओर सुंदर परिक्रमापथ है। बालु-प्रस्तर के बने चार तोरण स्तूप के चतुर्दिक् स्थित हैं जिन के लंबे-लंबे पट्टकों पर बुद्ध के जीवन से संबंधित, विशेषत: जातकों में वर्णित कथाओं का मूर्तिकारी के रूप में अद्भुत अंकन किया गया है। इस मूर्तिकारी में प्राचीन भारतीय जीवन के सभी रूपों का दिग्दर्शन किया गया है। मनुष्यों के अतिरिक्त पशु-पक्षी तथा पेड़-पौधों के जीवंत चित्र इस कला की मुख्य विशेषता हैं। सरलता, सामान्य, और सौंदर्य की उद्भभावना ही साँची की मूर्तिकला की प्रेरणात्मक शक्ति है। इस मूर्तिकारी में गौतम बुद्ध की मूर्ति नहीं पाई जाती क्योंकि उस समय तक[3] बुद्ध को देवता के रूप में मूर्ति बनाकर नहीं पूजा जाता था। कनिष्क के काल में महायान धर्म के उदय होने के साथ ही बौद्ध धर्म में गौतम बुद्ध की मूर्ति का प्रवेश हुआ। साँची में बुद्ध की उपस्थिति का आभास उनके कुछ विशिष्ट प्रतीकों द्वारा किया गया है, जैसे उनके गृहपरित्याग का चित्रण अश्वारोही से रहित, केवल दौड़ते हुए घोड़े के द्वारा, जिस पर एक छत्र स्थापित है, किया गया है। इसी प्रकार बुद्ध की बोधि का आभास पीपल के वृक्ष के नीचे ख़ाली वज्रासन द्वारा दिया गया है। पशु-पक्षियों के चित्रण में साँची का एक मूर्तिचित्र अतीव मनोहर है। इसमें जानवरों के एक चिकित्सालय का चित्रण है जहां एक तोते की विकृत आँख का एक वानर मनोरंजक ढंग से परीक्षण कर रहा है। तपस्वी बुद्ध को एक वानर द्वारा दिए गए पायस का चित्रण भी अद्भुत रूप से किया गया है। एक कटोरे में खीर लिए हुए एक वानर का अश्वत्थ वृक्ष के नीचे वज्रासन के निकट धीरे-धीरे आने तथा ख़ाली कटोरा लेकर लौट जाने का अंकन है जिसमें वास्तविकता का भाव दिखाने के लिए उसी वानर की लगातार कई प्रतिमाएं चित्रित हैं। साँची की मूर्तिकला दक्षिण भारत की अमरावती की मूर्तिकला की भांति ही पूर्व बौद्ध कालीन भारत के सामन्य तथा सरल जीवन की मनोहर झांकी प्रस्तुत करती है। साँची के इस स्तूप में से उत्खनन द्वारा सारिपुत्र तथा मोग्गलायन नामक भिक्षुओं के अस्थि अवशेष प्राप्त हुए थे जो अब स्थानीय संग्रहालय में सुरक्षित हैं। साँची में अशोक के समय का एक दूसरा छोटा स्तूप भी है। इसमें तोरण-द्वार नहीं है। अशोक का एक प्रस्तर-स्तंभ जिस पर मौर्य सम्राट् का शिलालेख उत्कीर्ण है यहाँ के महत्त्वपूर्ण स्मारकों में से है। यह स्तंभ भग्नावस्था में प्राप्त हुआ था।


साँची की स्थापत्य कला
          साँची का स्तूप प्राचीन कालीन भारतीय स्थापत्य कला का सुंदर उदाहरण है। यह किसी महान व्यक्ति की स्मृति को यथावत् रखने के लिए उसके अवशेषों को मिट्टी के थूहे के अन्दर स्थापित कर उल्टे कटोरे के आकार में बनाया जाता है। भगवान बुद्ध के पवित्र अवशेषों के ऊपर अनेक स्तूपों का निर्माण किया गया। प्रारम्भ में स्तूप में केवल मिट्टी का प्रयोग होता था, किन्तु कालान्तर में स्तूपों को पत्थरों एवं ईंटों से ढका जाने लगा। साँची, भरहुत, बोधगया, धम्मेख (सारनाथ), अमरावती, नागार्जुनी कोण्डा एवं घण्टशाला आदि कुछ प्रमुख भारतीय स्तूप हैं जो तत्कालीन स्थापत्य कला का प्रतिनिधित्व करते हैं।
          साँची में मुख्य स्तूप के अतिरिक्त लगभग ५० अन्य स्तूप, स्तम्भ, मंदिर एवं विहार प्राप्त हुए हैं, यह स्तूप मुख्यतया पहाड़ी के ऊपर या पहाड़ी की पश्चिमी पर स्थित है। पहाड़ी के ऊपर के स्मारक लगभग ३८४ मी. उत्तर से दक्षिण और २०१ मी. पूर्व से पश्चिम में फैले हैं। ११ वी या १२ वी शताब्दी में बनी पत्थर की आयातकर दीवार से गिरे हैं। स्मारकों में से अर्थात संख्या एक से पचास तक इसी दीवार के भीतर हैं, इनके अतिरिक्त केवल स्तूप संख्या दो और विहार संख्या ५१ ही हैं, जो की पहाड़ी की पश्चिमी ढलान पर हैं, और एक पुराने रास्ते द्वारा मुख्य अवशेषों से मिलते है।
महान स्तूप संख्या १
              साँची का मुख्य आकर्षण महान स्तूप आज भी अपने अंडाकार रूप में विद्यमान है, भारतीय स्तूप निर्माण कला के उदाहरण के रूप में इससे अच्छा कोई स्युप आज तक नहीं मिल पाया है। चोटी के पास यह कुछ समतल सा हैं, और यहा हर्मिका के मध्य में छत्रावली स्थापित है। स्तूप के चारो तरफ एक उचा चबूतरा है। जो प्रदक्षिणा के लिए बना है, यहा तक जाने के लिए दक्षिण की तरफ से सिडिया बनी है। एक दूसरा प्रदक्षिणा पर धरातल पर बना है, जो चारो तरफ से वेदिका से घिरा है। इसमे प्रवेश का मार्ग चारों मुख्य दिशाओं में बने तोरण द्वार से हैं। जो शिल्पकारी का अदभूत नमूना है। इस स्तूप का व्यास ३६.६ मी. और छत्रावली व हर्मिका को छोड़कर केवल अंड की उचाई १६.४६ मी. है।
         वेदीका अष्टभूजाकार स्तंभो के छेदो में सूचिओंकों फसाकर बनाई गयी है। उनपर ऊपर से गोल मुंडेर बनी हुई है। इन सूचियो पर उपासको के एवं सहयोग देने वाले के नाम उत्कीर्ण है।
          स्तूप का मुख्य आकर्षण इसके नकाशीदार तोरण है। जो पहली शताब्दी ईसा पूर्व में सातवाहनो के शासन काल में बने थे। इसकी जानकारी हमे दक्षिण तोरण के ऊपरी प्रस्तरपाद पर उत्कीर्ण अभिलेख से मिलती है। जो सातवाहन वंश के राजा शातकर्णी के शिल्पियों के मुखिया किसी आनंद की भेट का वर्णन करता है। वेदिका को तोरणों से जोड़ने वाले अतिरिक्त जंगले भी इसी काल में बने थे। स्तूप की आखरी वृद्धि लगभग पाँचवी शताब्दी के बाद हुई, जब ४५० ईसवी में गुप्त वंशी राजाओं के शासन में चार बुद्ध प्रतिमाये स्तंभदार चंदोवा के नीचे स्तूप की दीवार के साथ चारों प्रवेशद्वारों की तरह मुह किए हुए बनाई गयी थी। ये बुद्ध प्रतिमाए ध्यान मुद्रा में है, और उनके प्रभामण्डल पर विस्तार से नक्काशी की गयी है। दोनों तरफ एक-एक सेवक बने है।


तोरण:-
         चारों तोरणों में से दक्षिणी तोरण का मुख्य प्रवेश द्वार होना यहा स्थापित अशोक के स्तंभ के अतिरिक्त प्रदक्षिणा पथ की सीढीयो के भी इसी तरफ होने से प्रतीत होता है। तोरणों पर उनके भेटकरता के नाम उत्कीर्ण है। पश्चिमी तोरण का दक्षिण स्तंभ तथा दक्षिणी तोरण का मध्य प्रस्तरपाद आर्य-चुड के शिष्य वलमित्र की भेट है। इसी प्रकार कुरार के वासी श्री नागपिय पूर्वी तोरण के दक्षिण स्तंभ और पश्चिमी तोरण के उत्तरी स्तंभ के दान करता थे। समय कसा प्रभाव दक्षिणी तोरण पर अधिक पड़ा, जब की उत्तरी तोरण सबसे अच्छी हालत में है। उनके मूल आलंकारिक गुण तोरणों की प्राचीन सुंदरता का आभास देते है। इनके शिल्पी हाथी-दात आदि का काम करने वाले कारागीर थे। यह हमे दक्षिणी तोरण के पश्चिमी स्तंभ पर उत्कीर्ण अभिलेख से पता चलता है।
          प्रत्येक तोरण में दो चौकोर स्तंभ है, जो चार शेर, हाथी या तोंदल बौनो के समूहो से अभिषिक्त है। जिन्होने तीन वक्राकार प्रस्तरपादों जिनके किनारी कुंडलित है, को सहारा दिया हुआ है। स्तंभो की उचाई लगभग ८.५३ मी. है। प्रस्तरपादों के मध्य, जो की एक दूसरे से चार चौकोर शिलाखंडों द्वारा अलग है। तीन नक्काशीदार छोटे स्तंभ घुसेड़े गये है, उनके बीच का खाली स्थान दोनों तरफ को मुह किए हुए हाथी या घुड़सवारों से भरा हुआ है। स्तंभो के शीर्षफलक से बर्हिविष्ट तथा सबसे निचले प्रस्तरपाद के किनारों को सहारा देते हुए शालभज्जिकाओं की मूर्तिया बनी है। प्रस्तरपाद के किनारों के मध्य के खाली स्थान को इसी प्रकार की परंतु छोटी आकार की मूर्तियो से भरा गया है। जब की मरगोल पर सिंह या हाथी सवार खड़े है। ऊपरी प्रस्तरपाद के मध्य में एक धम्मचक्र है। जिसके बगल में चाँमर लिए हुए यक्ष और सुक्ष्मता से नक्काशी किए हुए त्रिरत्न बने हुए है। जो बुद्ध, धम्म और संघ के प्रतीक है। निचले प्रस्तरपाद के निचले भाग में कमल की कतार उत्कीर्ण की गयी है। देहलीज का ऊपरी भाग गोलाकार चित्र द्वारा मध्य में और दो अर्ध गोलाकार चित्र से सजाया गया है। इन चित्रो के बीच में फलिकायें बनी है।
           तोरण की पूरी सतह विभिन्न दृश्य एवं अलंकारो की नक्काशी से भरी है। शिल्पकारी काफी उन्नत एवं उच्चकोटी की है और सजीव प्रतीत होती है। समस्त तोरणों वह वेदिका पर लाल रंग किया हुआ है। जिसका कुछ अंश पूर्वी तोरण व साथ की वेदिका पर अभी भी देखा जा सकता है।
           तोरणों की नक्काशी अलग-अलग भागो में दृश्यों के रूप में विभाजित की गयी है। जातकों के दृश्य, भगवान बुद्ध के जीवन के दृश्य, बौद्ध धर्म के उत्तरकालीन इतिहास की घटनाए, मानुषिक बुद्धों से संबन्धित दृश्य तथा विभिन्न दृश्य और सजावट।
१) जातकों के दृश्य:-
          जातको की कहानिया गौतम बुद्ध के पुर्वजन्मो से संबन्धित है। जब बोधिसत्व की अवस्था में उन्होने पशु-पक्षी व मनुष्य के रूप में अनेकों जन्म लेकर दान, शील, आदि पारमिताओं का पालन करके बुद्ध को प्राप्त किया था। यहा केवल पाँच जातकों के दृश्य मिलते है, लेकिन वह सभी विस्तार से है। जिससे समस्त कथा स्पष्ट हो जाती है। वे पाँच जातक हैं- छद्दन्त जातक (५१४), महाकपि जातक(४०७), महावेस्सन्तर जातक (५४७), अलम्बुस जातक (५२३) और साम जातक (५४०)।


२) भगवान बुद्ध के जीवन के दृश्य:-
           भगवान बुद्ध के जीवन से संबन्धित दृश्यों को तोरणों की नक्काशी में मुख्य स्थान मिला है। इन सभी दृश्यों में भगवान बुद्ध कही भी मानुषिक रूप में नहीं दर्शाये गये है। उनकी उपस्थिती को प्रतीक रूप में दिखाया गया है। जैसे की धम्मचक्र, पदचिन्न, बोधिवृक्ष आदि।
           उनके जीवन की निम्नलिखित २९ घटनाये तोरणों पर दर्शायी गयी है। जन्म, बोधि प्राप्ति, प्रथम धर्मोपदेश, महापरिनिर्वाण, माता महामाया का स्वप्न व अवधारणा, चार यात्राये जिनमे उन्होने बूढ़े, रोगी, शव तथा सन्यासी को देखा, महाभिनिष्क्रमण, भगवान के केशो की देवता द्वारा पुजा, सुजाता द्वारा खीर दान, घसियारे स्वास्तिक द्वारा घास की भेट, मार द्वारा प्रलोभन व आक्रमण, बौद्धगया में चंक्रमन, रत्न गर्भ का दृश्य, नागराज मुचिलिन्द द्वारा वर्षा से बचाव, तपस्सु व भल्लिक का उरवेला से गुजरना, उनके द्वारा भिक्षा पात्र भेट करना, अध्येषणा, उरवेला के अग्नि मंदिर में सर्प का चमत्कार उरवेला में आग व लकड़ी का चमत्कार, उरवेला में भगवान बुद्ध का नदी पर चलना, कपिलवस्तु में आगमन, न्यग्रोधाराम में आम्र वृक्ष के नीचे बुद्ध देशना, साँकाश्य का चमत्कार, कपि द्वारा शहद की भेंट, शक्र का आगमन और शाही शोभा-यात्रा।
३) बौद्ध धर्म के उत्तरकालीन इतिहास की घटनाए:-
             केवल निम्नलिखित तीन घटनाओं को ही पहचाना जा सका है- कुशीनगर का विवाद तथा स्मृतिशेषों का बँटवारा, रामग्राम का स्तूप और अशोक की बोधि-वृक्ष-दर्शन-यात्रा।

४) मानुषिक बुद्धों से संबन्धित दृश्य:-
              साँची के शिल्पकारों का गौतम बुद्ध सहित पहले के छः मानुषी बुद्धों को प्रतिकात्मक रूप में दर्शना मुख्य विषय रहा है। प्रत्यक तोरण के प्रस्तरपादों पर उन्हे मुख्य स्थान मिला है। वे स्तूप या बोधिवृक्ष के द्वारा दर्शाये गए है। बोधि वृक्ष प्रत्यक बुद्ध के लिए भिन्न-भिन्न है। जिससे उनको पहचाना जा सकता है। पाटिल, पुंडरीक, शाल, शिरीष, उदुम्बर तथा न्यग्रोध वृक्ष क्रमशः विपश्यीन, शिखी, विश्वभू, क्रकुच्छन्द, कनकमुनी और काश्यप मानुषी बुद्धों को दर्शाते है। पश्चिमी तोरण के ऊपरी प्रस्तरपाद के सामने की तरफ अन्य बोधिवृक्षो के साथ नागपुष्प बोधिवृक्ष भी दर्शाया गया है, जो की भावी बुद्ध मैत्रेय का प्रतीक है।
५) विभिन्न दृश्य और सजावट:-
               विभिन्न दृश्य में ऐसी अनेकों नक्काशिया है जो भगवान बुद्ध के जीवन संबंधी है। उनका केवल धार्मिक उद्देश ही था। बुद्ध को न केवल मनुष्य और दिव्य व्यक्तियों द्वारा बल्कि वन्य प्राणीओं के द्वारा पुजा के दृश्य या स्वर्गीय जीवन के दृश्यों जो प्रदर्शित किया गया है, जो की मनुष्य को अच्छे कृत्य करने की प्रेरणा देते है।




स्तूप संख्या २
                यह स्तूप पहाड़ी की ढलान पर लगभग ३२० मी. नीचे एक चबूतरे पर स्थित है। और आकार व रूपरेखा में स्तूप सं. ३ से साम्य रखता है। दोनों में जो भिन्नता है ,वह केवल तोरण की है। तोरण, अंड के ऊपरी भाग, सीढ़ियों की चार दीवारी से रहित होने के कारण इसका दर्शन असज्जित सा लगता है। अब केवल धरातल पर बनी वेदिका ही सुरक्षित है। इसकी दोहरी सीढ़िया पूर्व की तरफ है। वेदिकापर मिले अभिलेखो और नक्काशी की शैली द्वारा इसके निर्माण का काल दूसरी शताब्दी ई.पू. का प्रतीत होता है।
     वेदिका के स्तंभ एक पूर्ण और दो अर्धगोलाकार चित्रों द्वारा सज्जित है। प्रवेश द्वार के निकट के केवल कूछ स्तंभ पूरी तरह नक्काशी किये हुए है। बुद्ध के जीवन के कुछ दृश्य जैसे जन्म, महाभिनिष्क्रमण आदि की प्रतिकात्मक अभिव्यक्ति के अतिरिक्त नक्काशी के विषय अलंकारिक उद्देश्य वाले है। जैसे पुष्प, पशु,पक्षी या पौराणिक जीव । पौराणिक जीवों में मनुष्य के चेहरेवाले सिंह, अश्वमुखी यक्षी, यक्ष, नाग आदि है। पक्षी आ पशुओं में चिड़िया, हाथी व सिंह आदि ज्यादा है। पुष्पों के विषय में कमल की अधिकता है। जो प्रत्येक एक दुसरे से सर्वथा भिन्न है। इस के शिल्पकारों की कला उतनी उन्नत  नहीं है। जितनी की स्तूप सं. १ में, लेकिन वे समकालीन कला के वास्तविक उदाहरण है।
     स्तूप का अधिक महत्त्व इसकी कला से नहीं बल्कि इसमेसे प्राप्त बौद्ध आचार्यो के शारीरिक स्मृतिशेषो के कारण है। चबूतरे से लगभग २.१३ मी. की ऊँचाई पर केंद्र से .६१ मी. पश्चिम की तरफ जनरल कनिंघम ने स्मृतिशेष-प्रकोष्ठ के भीतर पत्थर की एक स्मृतिशेष-मंजूषा पायी थी। ढक्कन सहित इसका आकार .२८x.२४x.२४ मी. है। इसकी पूर्वी सतह पर लिखा है- “ सविन विनायकान अरं कासप-गोतं उपादय अंर च वाछि-सुविजयितं  विनायक, ” अर्थात- आचार्य काश्यप  गोत्र तथा अर्हंत वात्सी सुविजयित सहित सभी आचार्य के स्मृतिशेष। ” मंजूषा के भीतर चार चित्तीदार सेलखड़ी की मंजूषा मिली है। हिन पर दस आचार्यो के नाम लिखे है, जिनकी जली हुई अस्थिया  इनमें मिली। वे आचार्य है- कासप-गोत,मज्झिम, हारितिपुत्त, वाछिय-सुविजयत, महवनाय, आपगिर, कोडिनिपुत्त, कोसिकीपुत्त, गोतिपुत्त तथा मोगलिपुत्त। ये सभी आचार्य समकालीन नहीं थे। इस प्रकार स्तूप से प्राप्त स्मृतिशेष आचर्य का कम से कम तीन पीढ़ियों के है। और यहाँ रखने के पूर्व कही और रखे गए होंगे।
          ऐसा प्रतीत होता है कि स्तूप के निर्माताओं ने जानबूझ कर इन स्मृतिशेष को रखने के लिए मुखी अवशेषों की अपेक्षा नीची जगह कओ चुना होंगा। क्योकि वे शास्ता व उनके मुख्य शिष्यों के स्मृतिशेषों के साथ इन आचार्यों के स्मृतिशेषों को रखने से झिझकते रहे होंगे। 

स्तूप संख्या ३
             यह स्तूप मुख्य स्तूप से उत्तर-पूर्व में लगभग ४५ मीटर की दूरी पर स्थित है। इसका प्रारूप बिल्कुल मुख्य स्तूप जैसा ही है।, केवल आकार में यह उससे काफी छोटा है। इसका व्यास १५ मीटर और ऊपरी भाग को छोड़कर ऊँचाई ८.२३ मिटारा है। इसमें केवल एक ही तोरण है और गोलाकार चित्र और किनारे पर दो अर्धगोलाकार चित्र बने है,जिनके मध्य तीन फलिकायें बनी है। 
           यह स्तूप जिस पर केवल एक छत्र है, अपनी सीढ़ियों, हर्मिका, वेदिका आदि सहित दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व में बनवाया गया,जब स्तूप सं. १  का पुनर्निर्माण किया गया था। तब यह पता चलता है मकई किसी एक व्यक्ति ने ही दोनों स्तूपों की सीढ़ियों की वेदिका के निर्माण के दान में भाग लिया था। उसका नाम अभिलेखों में उत्कीर्ण है। धरातल की वेदिका लगभग एक शताब्दी बाद बनी और तोरण तो पहली शताब्दी ईसवी में बना। इसी वक्त प्रदक्षिणा-पथ के तल को तीन मीटर के लगभग ऊँचा किया गया, जिससे की सीढ़ियों के निचले कदम उससे ढँक गये। तोरण की ऊँचाई ल्गभागा ५ मीटर है और उसका प्रारूप मुख्य तोरणों के समान ही है, किनती शिल्पकला उतनी उन्न्त नहीं है। 
           इस स्तूप का महत्त्व यहा से प्राप्त सारिपुत्र व मौद्गल्यायन के स्मृतिशेषों  के कारण है, जो कनिंघम ने अण्ड के मध्य में चबूतरे के धरातल के बराबर में प्राप्त किए थे। स्मृतिशेष प्रकोष्ठ के, जो १.५ मीटर के लगभग बड़े शिलाफलक से ढँका था, भीतर दो प्रस्तर मँजूषा मिली है। जिनके ढक्कनों पार क्रमशः  सरिपुतसमहा-मोगलानस लिखा मिला है। सरिपुत्र की मँजूषा में .१५२ मीटर चौड़ी व .०७६ मी. ऊँची सफ़ेद सेलखड़ी की स्मृतिशेष मँजूषा है जो चमकदार काली मिट्टी की तश्तरी से ढकी है और चन्दन की लकड़ी के दो टुकड़े मिले है। मँजूषा के भीतर अस्थि का एक छोटासा टुकड़ा व सात मणिकायें मिली है। ढक्कन के आंतरिक भाग पर स्याही से 'सा' लिखा है। जो सारिपुत्र के नाम का अग्रभाग है।
            मौद्गल्यायन की मँजूषा में दूसरी मँजूषा मिली है जो थोड़ी छोटी है। इसमें अस्थि दो टुकड़े रखे है। ढक्कन पर 'मा' शब्द लिखा है।
             इन उपरोक्त स्मारकों के अतिरिक्त यहा अनेकों अन्य स्तूप, स्तंभ, मंदिर व विहार मिले है जो इस स्थान के बौद्ध संप्रदाय की गतिविधियो के केंद्र होने और बौद्ध धर्म के यहा पर सक्रिय होने का प्रमाण मिलता है। स्थापत्य कला या शिल्पकारी के दृष्टि से इन स्मारकों का विशेष महत्व नहीं है।




नया चैत्यगिरी विहार
             महाबोधि सोसाइटी द्वारा पहाड़ी की उत्तरी ढलान पर सन् १९५२ में सारिपुत्त व मौद्गल्यायन की अस्थियो को रखने के लिए इसका निर्माण किया गया था। यह स्मृतिशेष सन् १८५१ में लंदन ले जाये गये थे और जनवरी १९४९ ईस्वी में भारत की महाबोधि सोसाइटी की प्रार्थना पर भारत को लौटाए गये थे।
             स्तूप संख्या २ से प्राप्त दस बौद्ध आचार्यो के स्मृतिशेष भी ब्रिटिश म्यूज़ियम से सन् १९५६ में भारत को लौटाए गये थे। इन में से पहली मँजूषा जिसमें मौग्गलिपुत्त तिस्स, कोसिकिपुत्त व गोतिपुत्त के अवशेष थे भारत सरकार द्वारा श्रीलंका को भेट कर दी गयी और दूसरी मँजूषा महबोधि सोसाइटी को भेट की गयी जो नये चैत्यगिरी विहार में राखी गयी है।
           इस प्रकार साँची का महत्व प्राचीन स्मारकों, स्तूपो के बेहतरीन उदाहरणो अत्यंत उन्नत शिल्पकला व बौद्ध आचार्यो के स्मृतिशेषों के कारण इतना अधिक है की, दूर-दूर से बौद्ध अनुययी यहा आते है और अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित करते है।
           साँची का स्तूप प्राकृतिक आपदा को झेलते हुए भी किसी विध्वंसक के हाथो में न पड़ने के कारण भारत के सबसे पूराने स्तूप और स्मारक के रूप में आज भी दुनिया के सामने शिल्पकला का एक बेहतरीन, बेजोड़ मिसाल के रूप में खड़ा है। जो हमे बुद्ध अनुयायीयों की कार्योंकी प्रेरणा देता है। सांची का स्तूप  वर्तमान में आज भी उतनाही महत्व रखता है जितना की अशोक और अन्य राजाओंके काल में था। बौद्ध पर्यटन के दृष्टि से आज भी अनेक देशी और विदेशी पर्यटक यहा लाखो की तादाद में भ्रमण हेतु यहा आते और यहा के शिल्पकारियों की बेजोड़ नमूने की प्रशंसा करते हुए थकते नहीं है।












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